बिहार—–
पटना: राजनीति अब एक ऐसा मुकाम बन चुका है जहां आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों का बोलबाला है। कहना नहीं होगा कि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को जनता से पहले राजनीतिक पार्टियां चुनती है। अब यदि आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति सांसद, विधायक, विधानपार्षद चुने जाते हैं तो सबसे पहले सवाल राजनीतिक पार्टियों पर ही उठेंगी। वैसे आम मतदाता भी इसके लिए समान रूप से दोषी करार दिए जायेंगे।
यह स्थिति तब है जब हाल के दिनों में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति के अपराधीकरण को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सांसदों द्वारा संसद में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों की भागीदारी प्रतिबंधित करने के लिए कानून में आवश्यक संशोधन नहीं किये गये। सर्वोच्च न्यायालय ने उम्मीद जताई कि जल्द ही सांसदों द्वारा अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर अपराधिकरण की इस बीमारी को दूर करने के लिए बड़ी सर्जरी की जायेगी।
न्यायालय ने सभी राजनीतिक पार्टियों को अपनी पार्टी से चुनाव लड़ने वाले सभी आपराधिक पृष्ठभूमि वाले पार्टी उम्मीदवारों के बारे में वेबसाइट पर पूरा विवरण अपलोड करने का निर्देश देते हुए चुनाव आयोग को भी निर्देश दिया कि विवरण अपलोड करने के लिए एक एप्लिकेशन तैयार करे।
न्यायालय ने टिप्पणी करते हुए कहा कि सभी दलों को लोकसभा एवं बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में कोर्ट द्वारा 2018 में दिये गये उस आदेश का उल्लघंन करने के लिए दोषी पाया गया है जिसमें सभी दलों को मीडिया में विज्ञापन जारी करने के साथ हीं अपनी पार्टी के वेबसाइट एवं सोशल मीडिया में जानकारी देने का निर्देश दिया गया था। कोर्ट के आदेश का पालन नहीं करने के कारण कोर्ट की अवमानना के खिलाफ भाजपा, कांग्रेस,राजद, लोजपा, भाकपा, जदयू को एक-एक लाख रुपए तथा सीपीआई (एम) और एनसीपी पर पांच-पांच लाख रुपए का जुर्माना लगाया गया।
तमाम न्यायिक सक्रियता, निर्वाचन आयोग, सिविल सोसायटी द्वारा आवाज उठाने के वाबजूद राजनीतिक दलों ने अभी तक इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया है, बल्कि राजनीति के अपराधीकरण में इजाफा ही हुआ है। बताते चलें कि न्यायालय का आदेश लोकसभा चुनाव के पूर्व आया था। लेकिन सभी दलों ने 2019 के लोकसभा चुनाव तथा बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में न्यायालय के आदेशों का उल्लघंन किया।
आंकड़ों के अनुसार 17 वीं विधानसभा चुनाव(2020) में 51 प्रतिशत आपराधिक चरित्र के उम्मीदवार को अपना प्रतिनिधि (विधायक) चुन लिया; जबकि 16 वीं विधानसभा चुनाव में यह 40 प्रतिशत और 15 वीं विधानसभा में यह 35 प्रतिशत हुआ करता था। यानी ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया वाली कहावत चरितार्थ होती आ रही है।
लब्बोलुआब यह कि न्यायालय एवं निर्वाचन आयोग के तमाम आदेशों के वाबजूद राजनीतिक पार्टियों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को ही अपना खेवनहार माना। यह राजनीतिक दलों की मेहरबानी है कि सदन में दागियों की धमक सुनी जा रही है। बाहुबली के साथ उनके परिजन भी सदन में पहुंच गये। चुनाव में कई ऐसे उम्मीदवार चुनाव जीते हैं जिनके उपर गंभीर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इनमें हत्या, हत्या के प्रयास,अपहरण का प्रयास, दुष्कर्म और धमकी जैसे मामले हैं। निर्वाचन आयोग के सख्त हिदायत के बाद भी यह स्थिति है।
राजनीति दलों ने निर्वाचन आयोग के निर्देश का अनुपालन का मजाक बनाते हुए छोटे-छोटे अखबारों में विज्ञापन छपवाया तथा पार्टी के वेबसाइट पर बे-सिर-पैर के तर्कों को अपना ढाल बनाकर खानापूर्ति कर दी। क्या यह साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि राजनीतिक दलों के नियत में खोट थी। चुनाव आयोग ने सभी राजनीतिक दलों को भेजे गये अपने पत्र में स्पष्ट रुप से हिदायत दी थी कि वैसे व्यक्ति को अपना प्रत्याशी नहीं बनायें जिनके विरुद्ध मुकदमे लंबित है।
राजनीति में बढ़ रही आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की संख्या को लेकर न्यायालय, मीडिया, सिविल सोसायटी सहित आम लोगों को चिंतित कर दिया है। स्वस्थ्य लोकतंत्र के लिए यह काफी गंभीर प्रश्न है। इसी पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय ने चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि जब पैसा और पावर सर्वोच्च शक्ति बन जाता है तब आमलोगों की परेशानी बढ़ जाती है। सर्वोच्च न्यायालय की सांसदो से अपेक्षा है कि इस संबंध में वह कानून बनाये। क्योंकि कानून बनाने का काम संसद का है, यह सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार में नहीं आता है। इस प्रकार कानून बनाने का काम न्यायालय ने संसद पर ही छोड़ दिया। न्यायालय ने आरोपी नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने से इंकार कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल याचिका में यह निवेदन किया गया था कि चुनाव आयोग ऐसे आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं की उम्मीदवारी रद्द करे साथ हीं ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देनेवाले पार्टियों का रजिस्ट्रेशन रद्द करे। इस पर कोर्ट ने अपना तर्क देते हुए कहा कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि मात्र आरोपों के आधार पर किसी को चुनाव लड़ने से रोक दिया जाये। यह फैसला पांच जजों के संविधान पीठ ने दिया था। याचिका का निष्पादन करते हुए संविधान पीठ ने पांच निर्देश दिये।(1) प्रत्याशी को अपनी पृष्ठभूमि समाचार-पत्र, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जरिए तीन बार बतानी होगी,(2) चुनाव आयोग के फार्म में मोटे अक्षरों में लिखना होगा कि उसके खिलाफ कितने आपराधिक मामले हैं,(3) पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों को अपने आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी पार्टी को भी देनी होगी,(4) पार्टी को अपने प्रत्याशियों के आपराधिक पृष्ठभूमि की जानकारी अपने पार्टी के वेबसाइट पर डालनी होगी,(5) चुनाव के दौरान अपने आपराधिक पृष्ठभूमि का विज्ञापन नहीं देनेवाले उम्मीदवारों को अदालत की अवमानना की कार्रवाई का सामना करना होगा तथा अपने प्रतिद्वंद्वियों के बारे में गलत आपराधिक रिकॉर्ड प्रकाशित करवानेवालों पर भ्रष्ट तरीके इस्तेमाल करने के आरोप में जुर्माना भी लग सकता है।
विडंबना है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव में न्यायालय के उक्त निर्देश का पालन नहीं किया। (शेष अगले भाग में)।
(सोजन्य से लेखक एडीआर, राजीव कुमार)
जे.पी.श्रीवास्तव,
ब्यूरो चीफ, बिहार।