बिहार——–
पटना: बिहार की राजनीति में अचानक एक ऐसा मोड़ आ गया है कि सारे राजनीतिक पंडित अपने-अपने ढंग से जातीय जनगणना पर अपना विचार प्रकट कर रहे हैं। एक बात और है कि राजनीति में एक दूसरे के धुर विरोधी भी जातीय जनगणना के मुद्दे पर एक मंच पर आ गये हैं। कहना नहीं होगा कि जातीय जनगणना के फायदे कुछ को छोड़कर बाकी सभी दलों मिलने वाला है।
जातीय जनगणना होने से हिंदू समाज 5 हजार पिछड़ी में बंट जायेगा तो धार्मिक गोलबंदी की कोई गुंजाइश नहीं बचेगी। यदि ऐसा हुआ तो भाजपा का मजबूत किला भरभरा कर ढह जाएगा। जिस नरेंद्र मोदी को चुनाव मैदान में हराने के लिए 17 विपक्षी दल खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं वह एक झटके में संभव हो जाएगा। इसलिए ओबीसी की राजनीति करने वाले दल जातीय जनगणना की मांग को आंदोलन का रुप दे रहे हैं। लेकिन ध्यान देनेवाली बात यह भी है कि जिस तरह जातीय भावनाओं को उकसाया जा रहा है उसके परिणाम से उकसाने वाले दल अपरिचित नजर आ रहे हैं। कालांतर में इसका गंभीर परिणाम हो सकता है।
लोकतंत्र में चुनाव जीतने के लिए अधिक से अधिक वोट चाहिए। इसके लिए अधिकतम वोटरों की गोलबंदी जरुरी है। काफी गहन अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष राजनीतिक दलों ने निकाला है कि गोलबंदी के लिए जाति ही सबसे बड़ा आधार है। जो सबसे ज्यादा जातियों को अपने पक्ष में करेगा जीत उसीकी होगी और
दरअसल भारतवर्ष में आजादी के बाद से ही चुनाव में जातियों का ही बोलबाला रहा है। चुनाव जातियों का खेल है इसलिए नेताओं को यह जानना बेहद जरूरी है कि किस जाति के कितने वोटर हैं। विकास और जनहित के आड़ में यह खेल खेला जा रहा है। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव कह रहे हैं कि पिछड़े वर्ग के सभी जातियों की वास्तविक संख्या मालूम हो जायेगी तब उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाने में सहुलियत होगी। लेकिन विचार करना होगा कि क्या सच्चाई यही है। क्या नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव जैसे वंचित लोगों की भलाई के लिए जातिय जनगणना कराने की बात कर रहे हैं।यह यक्ष प्रश्न सामने खड़ा है।
एक आवश्यक प्रश्न उठ रहा है कि जब मंडल के मसीहा 27 वर्षों में 3743 जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं दिला सके तो क्या वे 5013 जातियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं बना लेंगे और उसे लागू करा पायेंगे। सच्चाई को जानते हुए भी कोई दल इसका खुलकर विरोध नहीं कर पा रहा है। क्योंकि उसे डर है कि विरोध करने पर उसके उपर पिछड़ा विरोधी होने का ठप्पा लग जाएगा। इसलिए भाजपा भी खुलकर इसका विरोध नहीं कर पा रही है।
बताया जाता है कि भाजपा ने उत्तरप्रदेश के 2014 के लोक सभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व के बल पर ही पिछड़े वर्ग (गैर यादव) वोट को अपने पाले में कर बहुत बड़ी जीत हासिल की थी। धार्मिक ध्रुवीकरण के कारण ही सपा और बसपा जो जाति की राजनीति कर रहे थे उनकी करारी हार हुई थी।
जे.पी.श्रीवास्तव,
ब्यूरो चीफ, बिहार।