Search
Close this search box.

तालिबान की ताजपोशी में चीन, पाक, रूस समेत 6 देशों को न्योता, जानें- क्यों इनसे बढ़ी है दोस्ती

👇खबर सुनने के लिए प्ले बटन दबाएं

काबुल पर कब्जा करने के 20 दिन से अधिक बीत जाने के बाद भी तालिबान ने अब तक सरकार की घोषणा नहीं की है। लेकिन उद्घाटन समारोह में भाग लेने के लिए तालिबान ने छह अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों को पहले ही निमंत्रण दे दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक तालिबान ने उद्घाटन समारोह में भाग लेने के लिए रूस, चीन, तुर्की, ईरान, पाकिस्तान और कतर को आमंत्रित किया है। 

पिछली बार तालिबान सरकार को सिर्फ तीन देशों ने मान्यता दी थी। ये देश सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और पाकिस्तान थे। लेकिन अबकी तालिबान सरकार को दुनिया में एकदम से अलग-थलग रहने की संभावना बेहद कम है। तालिबान के अब कई देशों के संबंध हैं और कई देशों से संबंध बन रहे हैं। हालांकि अधिकतर देश अभी तालिबान को मान्यता देने से पहले ‘रुको और देखो’ की नीति अपना रहे हैं।

पाकिस्तान

अफगानिस्तान और अमेरिका के साथ सालों से जारी युद्ध में पाकिस्तान एकमात्र ऐसा देश रहा है जो तालिबान का समर्थक है। अमेरिका भी यह मानता है कि अगर पाकिस्तान में तालिबान का ‘मुख्यालय’ नहीं होता तो विदेशी ताकतों का अफगानिस्तान में ऐसा अंत न होता। तालिबान ने लगातार पाकिस्तान को अपना दूसरा घर बताया है। हाल ही पाकिस्तान के केंद्रीय मंत्री ने कहा था कि पाकिस्तान, तालिबान का ‘संरक्षक’ रहा है और लंबे वक्त तक उनकी देखभाल की है। पाकिस्तान, तालिबान शासन को मान्यता देने वाला सबसे पहला देश हो सकता है।

चीन

अफगानिस्तान से अमेरिका के निकलने के बाद से चीन वहां जगह बनाने को आतुर है। लेकिन चीन तालिबान सरकार को मान्यता देने पर ‘रुको और देखो’ की रणनीति पर काम करता दिख रहा है। बीजिंग अपने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के विस्तार को लेकर अफगानिस्तान को एक अहम कड़ी मान रहा है लेकिन सुरक्षा और स्थिरता अभी भी चिंता का विषय है। चीन ने लगातार कहा है कि वह अफगानिस्तान में समावेशी सरकार बनाने का समर्थन करता है। तालिबान और चीन के कई नेताओं ने कई मसलों को लेकर कई बार बातचीत की है।

रूस

रूस लगातार तालिबान से बातचीत कर रहा है लेकिन अब तक अपने पत्ते खोलने से बचता रहा है। रूस ‘मॉस्को फॉर्मेट’ पर काम कर रहा है। मॉस्को फॉर्मेट शब्द पहली बार 2017 में इस्तेमाल किया गया था। 2018 में रूस ने तालिबान के साथ एक हाई-लेवल डेलीगेशन में 12 अन्य देशों की मेजबानी की थी। इस बैठक का मुख्या उद्देश्य अफगानिस्तान में जल्द से जल्द शांति सुनिश्चित करना था। रूस अफगानिस्तान में बड़े दांव खेलना चाहता है लेकिन इतिहास की सीख से वह बचता नजर आता है। तालिबान के आने से रूस के लिए मध्य एशिया की सुरक्षा चिंताएं बढ़ गई हैं लेकिन रूस तालिबान को मान्यता देने से पहले समावेशी अफगान सरकार के इंतजार में है।

ईरान

ईरान ने अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान छोड़ने के फैसले का स्वागत करते हुए तालिबान शासन के साथ काम करने की बात कही है। ईरान और तालिबान के संबंध इतिहास में खराब रहे हैं और शिया-सुन्नी संघर्ष इसका प्रमुख कारण रहा है। तेहरान ने तालिबान और अमेरिका के बीच ‘दोहा व्यवस्था’ से अलग बातचीत करने का एक और ट्रैक बनाया था। एक पड़ोसी के तौर पर ईरान के लिए अफगानिस्तान एक महत्वपूर्ण देश है। अमेरिका द्वारा ईरान पर जारी प्रतिबंधों के बीच ट्रेड और कनेक्टिविटी लेकर तेहरान, काबुल से संबंध बनाए रखना चाहता है।

तुर्की

तुर्की नाटो गठबंधन में अमेरिका के साथ रहा है लेकिन अब तालिबान सरकार के साथ दिख रहा है। हाल ही में तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन ने कहा था कि वह तालिबान शासन के साथ सहयोग को तैयार हैं हालांकि पहले उन्होंने तालिबान की आलोचना की थी। तुर्की लगातार तालिबान के साथ जुड़ा रहा है। काबुल एयरपोर्ट पर तालिबान के कब्जे के बाद भी तुर्की द्वारा एयरपोर्ट की सुरक्षा सहायता देने की संभावना है। तुर्की यह सुनिश्चित करना चाहता है कि सुरक्षा, स्थिरता, शरणार्थी संकट आदि चिंताओं के बीच कुछ ऐसा किया जाए जिससे दोनों पक्षों को फायदा पहुंचे। ऐसे में तुर्की के पास अफगानिस्तान का बाजार एक चैनल है जहां वह युद्धग्रस्त देश में इस मौके को भुना सकता है।

कतर

कतर ने अब तक तालिबान को मान्यता नहीं दी है लेकिन उसके तालिबान से बेहतर रिश्ते रहे हैं। कतर न सिर्फ दोहा में अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत का सेंटर था, 15 अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर कब्जे के बाद से यह सेंट्रल ट्रांजिट हब बन गया। मध्यस्थ के रूप में कतर की भूमिका करीब एक दशक से जारी है। 2013 में वहां स्थायी राजनीतिक कार्यालय खोला गया जहां 2020 तक बातचीत जारी रही और अंत में अमेरिकी सैनिकों का अफगानिस्तान छोड़ने का फैसला लिया गया। कतर मौजूदा वक्त में काबुल एयरपोर्ट पर तकनीकी सहायता प्रदान कर रहा है।

मान्यता देने की बात

तालिबान द्वारा अफगानिस्तान पर कब्जा किए जाने के बाद पाकिस्तान और चीन ही ऐसे देश हैं जिन्होंने काबुल में अपने राजनयिक मिशन को बनाए रखा हुआ है। अन्य सभी देशों ने मिशन को अस्थाई रूप से बंद कर दिया है। अधिकतर देश इंतज़ार करो और देखो की नीति पर चल रहे हैं। लेकिन चीन, रूस, पाकिस्तान, ईरान, तुर्की और कतर के साथ ही सऊदी अरब जैसे देश तालिबान शासन को मान्यता देने वाले सबसे पहले देशों में से हो सकते हैं।

Source link